Natasha

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राजा की रानी

राजलक्ष्मी ने कहा, “अविचार अगर किया हो तो भी कह सकती हूँ कि अत्यन्त अविचार नहीं किया। ओ गुसाईं, मैं भी बहुत घूमी हूँ, बहुत देखा है। तुम लोग जहाँ अन्धे हो, वहाँ भी हमारी दस जोड़ी ऑंखें खुली हुई हैं।”


“पर जो कुछ देखा है रंगीन चश्मे से देखा है, इसीलिए सब गलत देखा है। दस जोड़ी भी व्यर्थ हैं।”

राजलक्ष्मी ने हँसते हुए कहा, “क्या कहूँ, मेरे हाथ-पैर बँधे हुए हैं, नहीं तो ऐसे आड़े हाथों लेती कि जन्म-भर न भूलते। पर जाने दो, जब मैं उस युग की तरह तुम्हारी दासी होकर ही रहती हूँ, तब तुम्हारी सेवा ही मेरे लिए सबसे बड़ा काम है। पर तुम्हें मैं अपने बारे में जरा भी नहीं सोचने दूँगी। संसार में तुम्हारे लिए बहुत काम हैं, अब से वे ही करने होंगे। इस अभागिनी के पीछे तुम्हारा काफी वक्त तथा और भी बहुत कुछ नष्ट हो गया है, अब मैं और नष्ट नहीं करने दूँगी।”

कहा, “इसीलिए तो मैं जितनी जल्दी हो सके उसी पुरानी नौकरी पर जाकर हाजिर हो जाना चाहता हूँ।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “नौकरी मैं तुम्हें नहीं करने दूँगी।”

“पर मनिहारी की दुकान भी मैं नहीं चला सकूँगा।”

“क्यों नहीं चला सकोगे?”

“पहला कारण तो यह है कि चीजों का दाम मुझे याद नहीं रहता, दूसरे दाम लेना और फौरन ही हिसाब करके बाकी पैसा लौटा देना तो और भी असम्भव है। दुकान तो उठ ही जायेगी, अगर खरीददारों के साथ लाठी न चल जाय तो गनीमत है।”

“तो एक कपड़े की दुकान करो।”

“इससे अच्छा है कि जंगली शेर-भालुओं की एक दुकान करा दो, मेरे लिए उसे चलाना ज्यादा आसान होगा।”

राजलक्ष्मी हँस पड़ी। बोली, मन लगाकर इतनी आराधना करने के बाद भी अन्त में भगवान ने मुझे एक ऐसा अकर्मण्य मनुष्य दिया जिसके द्वारा संसार का इतना-सा भी काम नहीं हो सकता!”

कहा, “आराधना में त्रुटि थी। उसे सुधारने का वक्त है, अब भी तुम्हें कर्मठ आदमी मिल सकता है- काफी सुन्दर, स्वस्थ, लम्बा-चौड़ा जवान; जिसे न कोई हरा सकेगा और न ठग ही सकेगा; जिस पर काम का भार देकर निश्चिन्त, हाथ में रुपया-पैसा सौंपकर निर्भय हुआ जा सकेगा। जिसकी खबरदारी नहीं करनी होगी, भीड़ में जिसे खो देने की व्याकुलता नहीं, जिसे सजाकर तृप्ति, भोजन कराकर आनन्द- 'हाँ' के अलावा जो 'ना' बोलना ही नहीं जानता...”

राजलक्ष्मी चुपचाप मेरे मुँह की तरफ देख रही थी, अकस्मात् उसके सारे शरीर में काँटे उठ आय। मैंने कहा, “अरे यह क्या?”

“नहीं, कुछ नहीं।”

“काँप जो उठी।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “मुँहज़बानी ही तुमने जो तसवीर खींची है, उसका अगर आधा भी सत्य हो तो शायद मैं मारे डर के ही मर जाऊँगी।”

“पर मेरे जैसे अकर्मण्य आदमी को लेकर तुम क्या करोगी?”

राजलक्ष्मी ने हँसी दबाकर कहा, “करूँगी और क्या। भगवान को कोसूँगी और हमेशा जलती-भुनती रहकर मरूँगी। इस जन्म में और तो कुछ ऑंखों से दिखाई नहीं देता।”

“बल्कि इससे अच्छा तो यही है कि तुम मुझे मुरारीपुर के अखाड़े में भेज दो।”

“उन्हीं का तुम कौन-सा उपकार करोगे?”

“उनके फूल तोड़ दिया करूँगा और देवता का प्रसाद पाकर जितने दिन जिन्दा हूँ पड़ा रहूँगा। इसके बाद वे उसी बकुल के तले मेरी समाधि बना देंगे। पद्मा किसी दिन शाम को दीपक जला जायेगी- जिस दिन वह भूल जायेगी उस दिन दीप न जलेगा। सुबह के फूल तोड़कर उसके पास से कमललता जब निकलेगी तो कभी एक मुट्ठी मल्लिका के फूल बिखेर देगी और कभी कुन्द के फूल। यदि कभी कोई परिचित रास्ता भूलकर आ जायेगा तो उसे समाधि दिखाकर कहेगी, यहाँ हमारे नये गुसाईं रहते हैं- यहीं जो जरा ऊँची जगह है, जहाँ मल्लिका के सूखे और कुन्द के ताजे फूलों के साथ मिलकर झरे हुए बकुल के फूल छाये हुए हैं- यहीं।”

राजलक्ष्मी की ऑंखों में ऑंसू भर आये, पूछा, “और वह परिचित व्यक्ति तब क्या करेगा।”

मैंने कहा, “यह मैं नहीं जानता। हो सकता है कि बहुत-सा रुपया खर्च कर मन्दिर बनवा जाए...”

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